Thursday, January 31, 2013

 तन्हाइयों मैं गुजरा करती है रात

आजकल अक्सर तन्हाइयों मैं गुजरा करती है रात 
पता नहीं क्या खास दिया था खुदा ने तुझमे,
सवाल किया करता हूँ अपने-आप से रात भर,
एक बार नहीं सौ-सौ बार,
पर जवाब कभी न आता है जुदा सा,
हर पल दिल कहता है देर है अंधेर नहीं।

ख़ामोशी से रहने का आदत नहीं है ,
 पर जब भी मैं निकलता था सर-ए-बाज़ार में,
तो लगता था मुझपे आवारगी का इलज़ाम,
और जब तन्हा रहा करता था,
तो लगता था इलज़ाम-ए-मोहब्बत का, 
यही सब बातों ने हमें लिखने पर मजबूर कर दिया,
शीशा हूँ, टूटूंगा तो बिखरूंगा ही,
पर एक खनक के साथ,
खनक के साथ एक खामियाजा भी छोर जाऊंगा।

कभी अपने इस  नादानी पर गुस्सा आता है,
तो कभी पूरी दुनिया को हँसाने को जी चाहता है।
कभी छुपा लेता हूँ दर्द को दिल के किसी कोने में,
तो कभी किसी को सब कुछ चिल्ला-चिल्ला कर सुनाने को जी चाहता है।
कभी रोया न करता था दिल के मामले में,
पर कभी यूँ ही आंसू बहाने का जी चाहता है।
कभी हंसी आ जाती है बीती बातों को याद करके,
तो कभी उसे तुरंत भुलाने को जी चाहता है।
कभी-कभी खुले आसमान को निहारने को जी चाहता है,
तो कभी बंद कमरे मैं तकिया से भी जी उचटता है।
कभी सोचता हूँ कोई नयी मिल जाए इस जालिम सफ़र में,
तो कभी हर पल तुम्हारे लिए जिए जाने को जी चाहता है।।

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